सुनीता जैन के ‘प्रेम में स्त्री‘ काव्यसंग्रह में व्यक्त प्रेम

सुनीता जैन के ‘प्रेम में स्त्री‘ काव्यसंग्रह में व्यक्त प्रेम
संवेदना

हिंदी साहित्य जगत में जाना माना नाम जो है सुनिता जैन। सुनीता जैन एक द्विभाषीक रचनाकार है। सुनीता जैन को पद्मश्री से अंलकृत किया गया है। साथ ही साहित्य के अनेक संम्मानों से इन्हें विभूषित किया गया है। वास्तव में विभिन्न साहित्यिक विधाओं में इनका लेखन कार्य हैं । फिर भी कविता इन्हें जादा पसंद है। इसिलीए लगता है कि कविता में सुनीता या सुनीता में कविता पता नहीं किसमें क्या है? आज तक कुल चालीस के लगभग कविता संग्रह इनके प्रकाषित हो चुके है। फिर भी इनका लेखन कार्य निरंतर चल रहा है। सुनीता जैन का एक बहुचर्चित कविता संग्रह है ‘प्रेम में स्त्री‘। इस कविता संग्रह के अंतर्गत कुल   –  कविताओं का समावेष है। आकार में लघु दिखनेवाली इनकी कवितायें पाठकों को विचार करनेपर मजबुर बना देती है। स्त्री प्रेम के विभिन्न रुपों को इस काव्यसंग्रह में दर्षाया गया है। वर्षा ऋतू की पहली वर्षा की पहली बॅंूद जिस प्रकार मन को उल्हासित करती है उसी प्रकार की सुनीता जैन की कविताएॅ मन को उल्हासित करती है। इस कविता संग्रह की कुछ कविताएॅं                         मन को छू जाती है।
वास्तव में सुनीता जैन के रचनाओं के द्वारा हमें मानवीय संवेदनाओं के विभिन्न पहलूओं को जानने का मौका मिलता है। इस कविता संग्रह में स्त्री-भावों की विभिन्न संवेदनाओं को व्यक्त किया है। इस कविता संग्रह में मानो रस की धारा निरंतर बढ रही है। अपनी समीक्षा में प्रियंका भारद्वाज कहती है “ यह संग्रह स्त्री के स्वानुभूत सत्य का प्रकाष है। यहाॅं स्त्री-प्रेम का वह माध्यम है जिसमें पुरुष के समस्त राग-विराग , समाहित रहते है। पुरुष के जीवन-व्यवहारों, व्यापारों और परिवेषजन्य विसंगतियों-असंगतियों का उदात्त एकीकरण या संग्रहण ही स्त्री-सौंदर्य है जिसे वह प्रेम के द्वारा परिष्कृत करती है।“ 1
स्त्री के प्रेम में क्षमस्वीनी रुप का एक कविता में सुंदर वर्णन सुनीता जैन ने किया है।
“समस्त शब्दकोष में
बस एक शब्द –
क्षमा! देह से, व्यवहार से,
वायु से, प्राण से,
नाम से, आधार से,
दाता से, धरीत्री से,
घर भर, संसार से,
क्षमा——-“2
भले ही लोगों से कितनी भी गलतीयाॅं हो जाये फिर भी सामंजस्य स्थापित करणे के लिए स्त्री का यह क्षमस्वीनी रुप सुनीता जैन ने रेखांकित किया है।
कामकाजी स्त्री में स्त्री की सभी दिन-भर की भागदौड बतायी गई है। सुबह जल्दि उठना, सब तैयारी करना और आॅफिस भी जाना सब खुद करना बीना किसी के सहारे—
“दिल्ली की दौडती सडकों पर
दौंड रही थी एक और कामकाजी स्त्री
बिना चूडी
बिना बिन्दी
उस स्त्री की
बेहिसाब चिन्ताओं में
यह कहीं दर्ज नहीं था,
कि नाष्ते में क्या खाएगा
उसका चैबीस घण्टे पुराणा पति“3
इस भागदौंड भरी जिंदगी में स्त्री को अपने आपको सवरने के लिए भी समय नहीं मिलता है। खुद के लिए जिने की अपेक्षा वह दिन भर दुसरों के लिए ही जीती है। उसी में ही अपना सुख मानती है। दुसरों के लिए जिना ही असली जीना है इस प्रकार की सोच स्त्री की है। साथ ही सुनीता जैन ने नारी का ऐसा ही समर्पिता रुप चित्रीत किया है।
“क्योंकि वे दोनों
अभी भी हैं प्रेम में
घर के बाहर, अलग-अलग संदर्भों में
वैसे भी वे छिन्न नहीं हो सकते कभी
उनके छिन्न होते ही
छिन्न हो जाती साॅंसे उनकी“4
प्रेम में एक दुसरे के प्रति समर्पित हो जाना ही असल में वास्तव प्रेम है। जिसें हम आदर्ष प्रेम या आदर्ष, पारदर्षी प्रेम कह सकते है। वास्तव में प्रेम यानी जिसमें त्याग की भावना होती है। प्रेम यानी जिसमें खुद का समर्पन भाव होता है। प्रेम में दुसरों के लिए खुद मर मिटने  निष्काम भाव होता है। एक दुसरे के प्रति आदरभाव होता है। दुसरों की भावनाओं को, सुखः दुःख को जानने और समझने की शक्ती को प्रेम केहेते है।
प्रेम तो कालान्त तक रेहेता है।ं प्रेम तो किसी भी भौतिक कारणोंसे बदलता नहीं है, समय के साथ वह भी बना रेहता है । इसमें सुनीता जैन ने प्रेम की असम्भवना के विरुध्द बात की है। प्रेम मे आपस में मिलन की छटपटाहट होती है। इसका वर्णन कवयित्री करती है-
“समय के थोडे से
घण्टों और सप्ताह के बाद
प््रेम बदलता नहीं
वह बना ही रहता है
कालान्त तक“5
प्रेम की विविध भावदषाओं का वर्णन इस कविता संग्रह में हम देख सकते है। पुष्पपाल सिंह कहते है – “सुनीता जैन प्रेम को ऐसी कोमल लचीली शंखपुष्पी के समान मानती है जिसे शब्दों, वायदों या पाणिग्रहण की लीक में नहीं बाॅंधा जा सकता, उसे विष्वास है तो इतना ही कि प्रेम में स्त्री को झेलना चले जाना/पुरुष के बूते की बात नहीं थी। “6 नक्षत्र कविता में प्रेम की आग में बुझ रही स्त्री को देखकर कवयत्री कहती है-
“प्रेम में बुझ रही है,
बुझ रही थी लगातार,
आन्तिम बार–“7
यानी सुनीता जी की कविताओं में प्रेम की क्षमा का रुप धारण करता है, कहीं पानी का पर्याय तो कहीं प्रेम से लौट रहीं स्त्री आग का रुप है। कमलेष सचदेव का मानना है कि “प्रेम में स्त्री की कविताएॅ प्रेम की तल्लीनता और सघनता को व्यक्त करते हुए किसी प्रकार की रुढी की जक डमें नहीं आती न तो वह रीतिकालीन विलास है, न छायावादी वायवीयता और नही कोरी बौध्दिकता। स्त्री और पुरुष के आदिम संबंध के आकर्षण और आवेग को युगीन स्थितियों में पहचानने का यह प्रयास स्त्री सुलभ आत्मीय भाषा में अत्यंन्त प्रभावषाली रुप में सामने आया है।“ सुनीता जैन के ‘प्रेम में स्त्री‘ इस काव्यसंग्रह में स्त्री के विभिन्न रुप प्रस्तुत किये है वह पुरुष के साथ किसी भी प्रकार से विद्रोह रुप न होकर एक समझौता, सामंजस्य के तौर पर दिखाये गये है। प्रेम में तो दोनों का समान महत्व है।  प्रेम में स्त्री-पुरुष का एक अपना अस्तित्व होता है। अपना एक अलग धरातल होता है। वास्तव में मनुष्य अपनी सारी जिम्मेदारीयों, कर्तव्यों को निभाते समय उसे प्रेम की आस होती ही है। जीवन बीताते समय सब काम, कर्तव्य वह करता रेहेता है लेकिन साथ ही प्रेम पाना यह भी उसका उद्देष्य होता है। अंत में यही कहना चाहॅुगी कि प्रेम ही इस विष्व का अंतिम सत्य है।

संदर्भ
1.    खंड 10, 287
2.
3.
4.
5.
6.    ( 259)
7.
8.    ( खंड 10, 259 )

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